सम्राट आया बुद्ध को मिलने

एक सम्राट आया बुद्ध को मिलने। स्वभावतः सम्राट था तो उसने एक बहुमूल्य कोहिनूर जैसा हीरा अपने हाथ में ले लिया। चलते वक्त उसकी पत्नी ने कहा कि पत्थर ले जा रहे हो। पत्नी ज्यादा समझदार होगी।

पत्नी ने कहाः पत्थर ले जा रहे हो। माना कि कितना ही मूल्यवान है; लेकिन बुद्ध के लिए इसका क्या मूल्य? जिसने सब साम्राज्य छोड़ दिया, उसके लिए पत्थर ले जा रहे हो। यह भेंट कुछ जंचती नहीं। अच्छा तो हो कि अपने महल के सरोवर में पहला कमल खिला है मौसम का, तुम वही ले जाओ। वह कम से कम जीवित तो है। और बुद्ध कमलवत हैं। उनके जीवन का फूल खिला है। उसमें कुछ प्रतीक भी है। इस पत्थर में क्या है? यह तो बिल्कुल बंद है, जड़ है।

बात तो उसे जंची, तो उसने सोचा कि एक हाथ खाली भी है; पत्थर तो ले ही जाऊंगा, क्योंकि मुझे तो इसी में मूल्य है। तो, मैं तो वही चढ़ाऊंगा जिसमें मुझे मूल्य है। लेकिन तू कहती है, तेरी बात भी हो सकती है कि ठीक हो। और बुद्ध को मैं जानता भी नहीं कि किस तरह के आदमी हैं।

तो फूल भी ले लिया। एक हाथ में कमल है, एक हाथ में हीरा, लेकर वह सम्राट बुद्ध के चरणों में गया। जैसे ही बुद्ध के पास पहुंचा और हीरे का हाथ उसने आगे बढ़ाया, बुद्ध ने कहाः गिरा दो।
मन में तो बड़ी उसे चोट लगी। चढ़ा दो नहीं, बुद्ध ने कहा, गिरा दो। अभी हाथ जरा सा बढ़ाया ही था, मगर जब बुद्ध ने कहा, गिरा दो, चोट तो लगी अहंकार को कि बहुमूल्य हीरा है, गिराने की चीज नहीं है। ऐसा हीरा दूसरा पृथ्वी पर खोजना मुश्किल है। यह मेरे खजाने का सिरमौर है।

मगर अब बुद्ध के सामने न गिराए तो भी फजीहत होगी, और हजारों भिक्षु बैठे हैं, और सब की आंखें टंगी हैं। उसने बड़े बेमन से, गिराना तो नहीं चाहता था, लेकिन गिरा दिया। सोचा, शायद पत्नी ने ही ठीक कहा हो। दूसरा हाथ आगे बढ़ाया, और जरा ही आगे गया था कि बुद्ध ने फिर कहाः गिरा दो।

अब तो उसे जरा समझ के बाहर हो गई बात कि यह आदमी कुछ भी नहीं समझता। न बुद्धि की बात समझता है, न हृदय की बात समझता है। बुद्धि के लिए हीरा था; गणित था उसमें, हिसाब था, धन था। प्रेम कमल, भाव हृदय..और इसको भी कहता है, गिरा दो! और मेरी पत्नी तो इसके चरणों में बहुत आती है। वह इसे पहचानती है। और यह उसको भी नहीं समझ पाया। मगर अब जब कहता है...। और जब हीरा गिरा दिया तो अब इस कमल में क्या रखा है, दो कौड़ी का है।

उसने गिरा दिया। तब वह खाली हाथ बुद्ध की तरफ झुकने लगा, बुद्ध ने कहाः गिरा दो। तब तो उसने समझा कि यह आदमी पागल है। अब कुछ है ही नहीं गिराने को। दोनों हाथ खाली हैं।
उसने कहाः अब क्या गिरा दूं?

बुद्ध तो चुप रहे; बुद्ध के एक भिक्षु ने, सारिपुत्र ने कहाः अपने को गिरा दो! हीरे और कमलों को गिराने से क्या होगा? अपने को गिरा दो! शून्यवत हो जाओ तो ही उन चरणों का स्पर्श हो पाएगा। तुम बचे, चरण दूर; तुम मिटे, चरण पास।

तब कहते हैं, उस सम्राट को उसी क्षण बोध हुआ। वह गिर गया। वह सच ही गिर गया। जब वह उठा तो दूसरा आदमी था। वह महल की तरफ वापस न गया। वह भिक्षु हो गया! यह संन्यस्त हो गया! उसने कहाः जब गिरा ही दिया तो अब वापस जाने वाला न बचा। बहुत दूसरों ने समझाया कि इतनी कोई जल्दी नहीं। उसने कहाः अब बात ही नहीं, जब मैं ही न रहा तो कौन वापस जाए? जो आया था वह अब नहीं है। अब बुद्ध मुझ में समा गए। उनकी बांसुरी मुझे सुनाई पड़ी! जरा सा सुर इतना मधुर है, तो पूरे संगीत का कैसा आनंद होगा!

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