मन की शंका
एक साधारण सा किसान था। पहाड़ियों पर कभी चढ़ा नहीं था, हालांकि पहाड़ियां उसके पास ही थीं, दूर नहीं थीं। पर्वत की हरियाली उसे बार-बार अपनी ओर खींचती। उसे पर्वत के ओर-छोर में लगे वृक्षों की सुन्दर पंक्तियाँ आकर्षित करती...लेकिन पर्वत के शिखर तक पहुंचने के लिए रात भर चाहिए, दिन में तो चढ़ा ही नहीं जा सकेगा, क्योंकि दिन में सूर्य की गर्मी, हताशा भर देती है, हिम्मत जवाब दे देती है।
उसने पर्वत की चोटी पर चढ़ने के लिए, एक बार पहले भी कोशिश की थी रात को। लेकिन उसके पास रौशनी के लिए लैम्प नहीं थी, लेकिन इस बार उसने लैम्प का प्रबंध कर लिया था और लैम्प लेकर वह एक रात, पर्वत की चोटी तक चढ़ने के लिए घर से निकल
पड़ा। लेकिन आत्मविश्वास की कमी ने उसे | फिर रोक लिया। जब उसने पर्वत शिखर पर नजर डाली तो उसे डर लगने लगा। भीतर से डोल गया। उसका मन कह उठा, कैसे चढ़पाओगे। इतनी ऊंची चोटी पर...इतनी दूर तक कैसे जा पाओगे...रात अंधेरी है, कहीं पैर फिसल गया तो..? इसी 'तो' ने उसे हिला दिया। हिम्मत जवाब दे गई। फिर भी उसके भीतर के एक कोने में फिर थोड़ी-सी शक्ति का संचार हुआ। उसने सोचा, इस बार तो मेरे पास यह लैम्प भी है। इसकी रौशनी से अंधकार मिटता जाएगा और मैं आगे बढ़ता जाऊंगा, आखिर पहुंच ही जाऊंगा..
लेकिन उसके मन की शंका ने उसे डराया। इस लैम्प की रोशनी भी आखिर कितनी दूर तक जाएगी...कुछ ही कदम...और फिर उसके बाद फिर अंधेरा...कैसे चढ़ पाओगे...चढ़ना रात को?
वह गांव के बाहर उस स्थान पर रुक गया, जहां से चढ़ाई शुरू होनी थी.. लेकिन तभी एक वृद्ध उसके पास से
गुजरा, वह भी पहाड़ी की ओर ही जा रहा था. उसके पास भी लैम्प थी, लेकिन उसकी तुलना में छोटी थी. किसान बहुत हैरान हुआ...उस वृद्ध को अपने पास बुलाया...तुम भी पहाड़ी पर चढ़ना चाहते हो ? वृद्ध ने कहा, हा । लेकिन बहुत अंधेरा है. लैम्प भी तुम्हारे पास छोटी-सी है, रोशनी बहुत दूर नहीं जाती. चंद कदम ही देख पाएंगे...कैसे चढ़ पाओगे इतनी ऊंचाई.
सुन कर वृद्ध हंसा बोला, पगले, जब जाओगे ही नहीं तो मंजिल कैसे पाओगे? जब जागोगे ही नहीं, तो उजाले का कैसे पता चलेगा. लैम्प को हाथ में पकड़ो.. देखो, कुछ कदम चलो, कुछ कदमों का अंधरा छंटता जाएगा...कुछ कदम और चलो, आगे का अंधेरा मिटता जाएगा...ऐसे चलते जाओ, अंधेरा मिटता जाएगा...रास्ता नजर आता जाएगा...और फिर अंततः तुम मंजिल पर पहुंच जाओगे...जब चलोगे ही नहीं तो रास्ता खत्म कैसे होगा ? एक-एक कदम बढ़ते रहने से तो सारी दुनिया की परिक्रमा की जा सकती है..और तुम इस छोटे से मार्ग पर ही अटके हुए हो...तुम्हारे पास भी लैम्प है। उठाओ इसे। इसके प्रकाश से कदम-कदम बढ़ते जाओ। रास्ता साफ होता जाएगा..और तुम मंजिल पा लोगे...एक दिन...और उस युवक में एक हौसला जागा, उठा, अपनी लैम्प की मद्धम सी रौशनी के सहारे वह पहाड़ी पर चढ़ने लगा...और फिर सुबह होगी से पहले ही वह पहाड़ी की चोटी पर पहुंच गया था...खुश था...
जीवन के मार्ग पर चलने के लिए यदि इस व्यक्ति की सीख पर अमल किया जाए तो कुछ भी मुश्किल नहीं है।जीवन के मार्ग पर चलने के लिए यदि इस व्यक्ति की सीख पर अमल किया जाए तो कुछ भी मुश्किल नहीं है।
परमात्मा को पाने के लिए भी परमात्मा के पथ पर तो बढ़ना ही पड़ेगा...कदम-कदम गुरु के 'अनहद' वचन के सहारे...गुरु का शब्द एक लैम्प है, एक प्रकाश है, इसके प्रकाश में बढ़े, थोड़ा-थोड़ा...अभ्यास करें, थोड़ा-थोड़ा, मन को साधे, पवित्र बनाएं,परमात्मा के साथ जोड़ें, धीरे-धीरे और फिर जब संकल्प-विकल्प के दुरुह मार्ग में, संकल्प का सम्बल लेंगे, लैम्प रूपी आत्म विश्वास का सहारा लेंगे, तो परमात्मा को पा ही लेंगे...लेकिन बढ़ना तो पड़ेगा ही... पुरुषार्थ करना ही पड़ेगा...परमात्मा तो अपने भक्त से दूर रहना ही नहीं चाहते....पर कोई भक्त बने तो सही..
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